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प्रकाशक का मनोगत:-

सरदार रणजीत सिंघ अरोरा 'अर्श'

‘अर्श की कलम से’……..
हर एक व्यक्ति में कुछ ना कुछ खुबी होती है उस खुबी को पहचान कर उसे निखार कर समाज के समक्ष लाने पर वह इंसान अपनी इस खुबी से समाज हित में कई अच्छे कार्यों को अंजाम दे सकता है।
‘अर्श – प्रकाशन’ मेरे व्यवसायिक दृष्टीकोण की उपलब्धि है। मैनें अपने जीवन की स्वयं रचित प्रथम दो मुद्रीत पुस्तकों का प्रकाशन ‘अर्श – प्रकाशन’ के माध्यम से किया है। ‘अर्श – प्रकाशन’ का विशुध्द मकसद गुरुबाणी और सिक्ख इतिहास को पुस्तकों के माध्यम से प्रचारित कर सिक्ख इतिहास और गुरुबाणी को आम पाठकों (संगतों) को योग्य – मुल्य पर दर्जेदार साहित्य उपलब्ध करवाना है| साथ ही मेरे द्वारा अन्य विषयों पर रचित रचनाओं के संग्रह को इस वेब साइट के माध्यम से सुरक्षित कर, आम पाठकों तक पहुंचाना है कारण समयानुसार इन संग्रहित लेखों के द्वारा मैनें अपना एक सकारात्मक विचारों का द्रष्टिकोण रखा है। मेरे इन लेखों के संग्रह को ‘अर्श – प्रकाशन’ के माध्यम से प्रकाशित कर, आम पाठकों तक पहुंचाना है। भूत – भावन बाबा महाकाल की नगरी की गलीयों में गुजारा बचपन सचमुच एक खुला विश्वविद्मालय था, बिना दीवारों के इस विद्मालय में जीवन कि कटुता को समझ, ‘संघर्ष ही जीवन है’ इस मूल मंत्र को आत्मसात कर अपना स्वयं का मार्ग प्रशस्त करने की यह गाथा है। मेरा जन्म एक गरीब परिवार में हुआ परंतु एक जिद्द थी की पारिवारिक परिस्थितियों को संभालते हुये स्नातक की डिग्री हासिल करना है, विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षण के साथ – साथ इस खुले विश्वविद्मालय में बहुत कुछ सीखने को मिला, व्यक्तिगत जीवन शैली में मालवा की मृधगंध आचार – विचार, व्यवहार, त्यौहार, मृधभाषा और आत्मीयता शरीर के रोम – रोम से पुलकित होती है। भले ही शारीरिक रूप से में पुणे में हूँ परंतु आत्मिक रुप से हमेशा उज्जैन में विचरण करता रहता हूँ। भूख से लड़ना अपने व्यक्तिगत कार्य प्यार और सहजता से निकालना इस खुले विश्वविद्मालय की देन है। छात्र जीवन की राजनिती ने जीवन में एक विशेष संगठन कौशल्य का निर्माण किया। विद्यालयीन जीवन में हिंदी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने के कारण बचपन से ही गद्य, पद्य, निबंध और स्तंभ लेखन में रुचि रही है। हिंदी साहित्य को समझने की कोशिश की और लिखने का शौक बचपन से ही रहा है। जिंदगी जीने के इस संघर्ष, भाग दौड और उठा – पटक में अपने इस शौक को समय ही नही दे पाया।

आज में एक टी.यु. वी.सर्टीफाइड प्रायव्हेट लिमिटेड कंपनी का मैनेजींग डायरेक्टर हूँ। ऑटोमोबाइल उद्मोग के अंतर्गत स्थित औद्मोगिक क्षैत्र में भी कई टेस्टिंग उपकरणों का निर्माण अपने ज्ञान और अनुभव से किया है। इस क्षेत्र में अपने ज्ञान, लगन, मेहनत, एकाग्रता और ईमानदारी से कई बेमिसाल कार्य किये है जो जीवन में माइल स्टोन है और इन सभी व्यवसायिक उपलब्धियों को सफलता पूर्वक अंजाम देने के कारण ही मैं ‘अर्श – प्रकाशन’ जैसी संस्था को विशेष आयाम देकर ‘गुरु पंथ खालसा’ के एक अदने से सेवादार के रुप में, मैं अपनी सेवाएं समर्पीत कर रहा हूं| इन सेवाओं के लिये जिन्होनें मेरे जीवन को विशेष रुप से प्रेरित किया ऐसे ‘गुरु पंथ खालसा’ के महान सेवादार इतिहासकार सरदार भगवान सिंघ जी ‘खोजी’ एवम् ज्ञानी हरिंदर सिंघ जी (अलवर निवासी) जी का में तहदिल से आभारी हूं| यह सब लिखने का कारण यह है की एक गरीब परिवार का लड़का जिसने उज्जैन जैसे धार्मिक शहर में अपना बचपन गुजारा और आज एक मुकाम पर पहुंचने के बाद अपने जीवन की समस्त जवाबदारीयों से मुक्त होकर, स्वयं को समाज के लिये लेखन कार्य के लिये समर्पित कर, स्वयं की प्रकाशन संस्था को स्थापित कर, स्विकार की हुई जवाबदारियों को सही समय पर, उत्तम ढंग से इस ‘अर्श – प्रकाशन’ संस्था के माध्यम से संपूर्ण की जा सकें। मैनें इस व्यवसाय को “ना नफा – ना तौटा” के सिध्दांत को अमल में लाकर, विशेष रूप से स्थाई भाव देने का कार्य किया है| मैं विशेष रुप से ‘विश्व मराठी परिषद’ और इस परिषद के संस्थापक – अध्यक्ष प्राध्यापक क्षितिज पाटुकले जी का भी आभारी हूं जिन्होनें मुझे चार दिवसिय आन लाइन क्लास के माध्यम से पुस्तक प्रकाशन की बारिकियों को समझाया, साथ ही इस व्यवसाय के व्यवसायिक गुण धर्मों से मुझे अच्छे से अवगत करवाया| धन्य – धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की निम्नलिखित बाणी का ओट – आसरा लेकर मैं अपने इस प्रकाशन के कार्य को आरंभ कर रहा हूँ:-
कीता लोड़ीऐ कंमु सु हरि पहि आखीऐ॥
कारजु देइ सवारि सतिगुर सचु साखीऐ॥
(अंग क्रमांक ९१)
अर्थात् यदि कोई नवीन कार्य प्रारंभ करना हो तो उसकी सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। सतिगुरु जी की प्राप्त शिक्षा के अनुसार सच्चा प्रभु अपने सेवक का कार्य आप संवार देता है।

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